क्यूं ना छू लूँ नीलगगन को
क्यूं ना चंद पे पाओं धरूं
हर मंज़िल को लपक के छूलूँ
हर मुश्किल को स्वाहा करूंमैं तो हूँ उस रब का बंदा
क्यूं फिर और कीसी से डरूँआकाश है मेरा रंगमंच
इन्द्रधनुष से रंग भरूँमैं समर्थ हूँ, मैं विराट
हर पल जय का उद्घोष करूंआओ साथ चलो मेरे की दुनिया अपनी राह ताके
कौन और इन सीमाओं को अपने वश में बाँध सकेहर पर्वत अपना मित्र है, हर नदी से अपनी यारी
हर सिंह ने अपने ताज की बाज़ी, बस हम से ही हारी
ये पल वही , ये स्थल वही जो कर्मभूमि केहलायेगी
हर इच्छा तेरी… कर प्रयास तेरी नियती बन जायेगी
क्यूं ना छू लूँ नीलगगन को
क्यूं ना चंद पे पाओं धरूंहर मंज़िल को लपक के छू लूँ
हर मुश्किल को स्वाहा करूं
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